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Flutist of Indian Classical music genre

Saturday, December 11, 2010

ताल वाद्यों की सीमा

तबला वादन का कार्यक्रम था। एक प्रसिद्ध तबला वादक का तबला एकल वादन चल रहा था। वादक अपनी पूरी क्षमता से बजा रहे थे। उनकी उँगलियों की तैयारी देखते ही बनती थी। विभिन्न बोलों की विविधता देखते ही बनती थी। साथ ही हारमोनियम पर सुंदर लहरा भी बज रहा था। श्रोताओं की वाह वाह रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। इतना सुंदर माहौल होते हुए भी थोड़ी देर के बाद मुझे सारे बोल एक जैसे लगने लगे। मुझे सूझ ही नहीं रहा था की सारे बोल एकरूप क्यों लग रहे हैं। दिमाग दौडाने लगा तो एक कारण मिला जिसका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ, शायद आप भी सहमत होंगे।

तबले को षड्ज से मिलाया जाता है। परिणाम स्वरुप उसमें जितने भी बोल बजते हैं, वे सभी एक ही सुर यानी सा के ही रूप होते हैं। अधिक से अधिक उसमें एक स्वर और निकल सकता है, और वह है ऋषभ या रे। अब सिर्फ सा और रे की विविधता को कोई व्यक्ति कितना सुन सकता है? शायद यही कारण है की एक अंतराल के बाद तबला वादन की एकरूपता (monotony) बढ़ जाती है तथा वह उबाऊ बनता जाता है. लय की विविधता के कारण रोचकता कुछ समय तक तो बनी रहती है पर धीरे धीरे वह भी समाप्त हो जाती है।

इस एकरूपता को तोड़ने के लिए कई तबला वादकों ने अथक प्रयास किये हैं। उदाहरण के लिए सुरों की विविधता को भरने के लिए बाएं का प्रयोग विभिन्न प्रकार से करते हैं। लहरे के माध्यम से भी विविधता लाने के प्रयास किये गए हैं। फिर भी अभी तक वह स्थिति नहीं ई है की किसी स्वर वाद्य की तरह यह ताल वाद्य भी लम्बे समय तक सुना जा सके। अभी और बहुत लम्बी यात्रा बाकी है...

Saturday, September 11, 2010

विनोबा भावे विश्वविद्यालय का युवा महोत्सव '१०


उम्मीद मुझे भी नहीं थी की इतने ज्यादह पोस्ट्स लिख पाऊंगा, पर कभी कभी खुद पे भी अचम्भा होता है। ब्लोग्स लिखना मेरे लिए खुद से बातचीत करने जैसा है। जो भी मन में आये लिख डालो। बिना इस बात की परवाह किये की उसे कौन और क्यों पढ़ रहा है।

हाल ही में बोकारो में युवाओं का एक बड़ा कला आयोजन हुआ - प्रतिबिम्ब '१०। वास्तव में यह विनोबा भावे विश्वविद्यालय का सोलहवां युवा महोत्सव था जिसमें विभिन्न कोलेजों के लगभग १००० प्रतिभागियों ने भाग लिया। मुझे विश्वविद्यालय ने चयनकर्ता के रूप में मनोनीत किया था। यह एक बड़ा सम्मान था। पूरे तीन दिनों तक क्षेत्र की युवा प्रतिभाओं से मिलना, उनसे बातचीत करना, उन्हें आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देना और उनके कला प्रदर्शन का लुत्फ़ उठाना आखिर किसे नहीं भाएगा। संगीत, नृत्य, दृश्य कलाएं तथा नाट्य कलाएं इस महोत्सव की प्रमुख विधाएं थीं।

निर्णायकों के रूप में कला जगत के कई महारथियों से मिलना भी संभव हो पाया। गायन के क्षेत्र में कुछ अच्छी आवाजें सुन ने को मिलीं। ऐसा ही नृत्य के क्षेत्र में भी हुआ। मन आश्वस्त हुआ इन विधाओं के भविष्य के बारे में। पर वाद्य संगीत तथा दृश्य कलाओं के विषय में ऐसा नहीं था। पूरे वादन विभाग में, चाहे वह ताल वाद्य हों या स्वर वाद्य, प्रतिभागी ही नहीं थे। विजेताओं की बात तो बाद में आती है। यह स्थिति दर्शाती है की आज के युवजन वाद्य संगीत में मेहनत नहीं करना चाहते। वे ऐसी विधाओं के प्रति ज्यादह आकर्षित हो रहे हैं जिन्हें टी वी चैनलों पर ज्यादह तवज्जोह दी जाती है। पूरे क्षेत्र में एक भी युवा वादक नहीं मिलने से गुरु जनों की कमी भी समझ में आ रही है।

कुछ प्रतिभा शाली युवाओं से बात की तो पता चला की जो उभर कर सामने आ रहे हैं वे भी सीखने के प्रति गंभीर नहीं हैं। किसी प्रकार से दर्शकों की ताली और प्रशंसा बटोर ली जाये, यही उनका एक मात्र लक्ष्य बन गया है। कलाओं का मूल उद्देश्य - "सौंदर्य की अभिव्यक्ति" से जैसे उनका ध्यान ही हट गया है। आज आवश्यकता है समाज में समाप्त हो रही इन कला विधाओं को बचाना तथा इन क्षेत्रों में काम कर रहे गुरु जनों को उचित सम्मान दिलाना। तभी योग्य शिष्य तैयार हो पायेंगे।

Friday, August 27, 2010

इलाहाबाद के वो दिन


बांसुरी सीखने की शुरुआत तो मैंने की स्वर्गीय आचार्य जगदीश जी से, परन्तु बाद में लगने लगा की किसी बांसुरी वादक से भी सीखना चाहिए। इस क्रम मेरी पहली पसंद थे भोलानाथ जी। अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता के दौरान मैं उनसे मिल चुका था तथा उस प्रतियोगिता में उनके एक शागिर्द को हराने की वजह से वो भी थोड़ा बहुत मुझको जानते थे। मैंने निश्चय किया की इलाहाबाद जाकर भोलानाथ जी से बांसुरी सीखी जाए। मैंने चास कोलेज से आई कॉम की पढ़ाई पूरी की तथा बी कॉम के लिए पिताजी से इलाहाबाद जाने की इजाजत माँगी। हम लोग थोड़ी आमदनी में गुज़ारा करते थे। फिर भी थोड़ी आनाकानी के बाद इजाज़त मिल ही गयी। मैंने इलाहाबाद जाने के लिए बोरिया बिस्तर बाँध लिया। इलाहबाद पहुँचने के बाद सब से पहला काम किया, गुरूजी के घर फोन किया। उन्होंने मुझे घर बुला लिया।

भोलानाथ जी का घर सिविल लाइंस के पास बहुगुणा मार्केट के पास था। गुरूजी खाट पर आंगन में बैठे हुए थे। मैंने प्रणाम किया तथा उनसे मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया। गुरूजी ने थोड़ा सोचा और फिर कहा - शुरू से सीखना होगा। मैंने कहा - स्वीकार है। अगले दिन से शुरुआत की बात तय हो गयी। मेरी तो खुशी का ठिकाना न था। मेरा स्वप्न जो साकार हो रहा था।

अगले दिन मैंने इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में दाखिला ले लिया जो गुरूजी के घर से बहुत दूर था। एक पुरानी साइकल खरीद ली आने जाने के लिए। गुरूजी के घर के पास ही एक किराये का कमरा ले कर रहने लगा। अब मेरी दिनचर्या कुछ ऐसी हो गयी की सुबह उठ कर पहला काम था रियाज़ करना। फिर कोलेज जाना। दोपहर तक लौट कर गुरूजी के घर जा कर सीखना और फिर वहां से रात को मेरे तबला वादक मित्र नटराज के घर जा कर रियाज़ करना। दिन भर में ३० -४० किलोमीटर की साइकिल यात्रा तो हो ही जाती थी। लौटते हुए अक्सर रात के ११ बज जाते थे और वह समय होता था आवारा कुत्तों का... । बाद में मैंने उनसे पीछा छुडाने की तरकीब भी इजाद कर ली थी।

गुरूजी का सिखाने का तरीका बड़ा ख़ास था। वे शाम को बांसुरी लेकर बैठ जाते थे। आस पास में हम शिष्य गण अपनी बांसुरी लेकर बैठते थे। गुरूजी कोई भी राग शुरू कर देते थे और हम लोगों को साथ बजाने को कहते। राग कौन सा होगा इसकी कोई गारंटी नहीं थी। जो भी मन में आ जाये! इस बीच अगर किसी शिष्य ने राग का परिचय पूछ लिया तो उसकी खैर नहीं। राग बजाओ और घर जा कर उसके बारे में किताबों में खोजो। आप सीखते वक्त नोटेशन भी नहीं लिख सकते थे। हाँ अगर गुरूजी खुद ही मौज में आकर राग के बारे में बताने लगें तो बात अलग है, वरना.... ।

इस तरह सीखने से कई फायदे हुए। रागों के बारे में शोध करने की प्रवृत्ति बड़ी, बंदिशें और परिचय याद रहने लगे तथा किसी भी स्वर समूह को पहचानने की क्षमता बढ़ी. गुरूजी स्वर्गीय पंडित महादेव मिश्र जी के शिष्य थे, सो गाते भी बहुत अच्छा थे। गुरूजी के साथ बिताये वे क्षण मैं शायद कभी नहीं भूल पाउँगा।

Thursday, August 26, 2010

भोलानाथ जी की शहनाई


आज सुन रहा था पंडित दया शंकर जी की शहनाई स्पिक मेके के एक आयोजन में बैठा था पंडित जी ने गुर्जरी तोड़ी में गत से शुरुआत की बाद में एक बनारसी धुन और फिर भैरवी.... मज़ा गया पंडित जी को मैंने बताया की बोकारो में उनकी तीन पीढियां कार्यक्रम दे चुकी हैं - उनके पिता जी पंडित अनंत लाल जी तथा उनके दोनों सुपुत्र आनंद शकर तथा सचिन शंकर भी यही नहीं उनके दामाद श्री प्रमोद गायकवाड भी हम लोगों को अपनी मधुर शहनाई का रसास्वादन करा चुके हैं

शहनाई के स्वरों के साथ डूबता उतराता मैं अपने ख्यालों में पहुँच गया अपने गुरुदेव स्वर्गीय पंडित भोलानाथ जी के ज़माने में बताता चलूँ की भोलानाथ जी, दयाशंकर जी के चाचा थे इलाहाबाद में मैं सन १९८५ में गुरूजी से बांसुरी सीखने गया था वहां रहकर लगभग दो वर्षों तक सीखा तथा बाद में आना जाना करता रहा गुरूजी बांसुरी के तो सुविख्यात कलाकार थे ही, शहनाई, सक्सोफोन तथा क्लार्नेट के भी बड़े उम्दा कलाकार थे। सीखने के क्रम में कई बार भोलानाथ जी की शहनाई सुनी उनकी शहनाई में जो बात थी वह मुझे किसी अन्य कलाकार में नहीं मिली शहनाई की सुरीली आवाज़ और उन पर गुरूजी की सधी हुई उंगलियाँ जो कमाल दिखाती थीं वह अवर्णनीय है मुझे उनकी बांसुरी तो अच्छी लगती ही थी, पर शहनाई का तो मैं दीवाना बन गया था बांसुरी की तुलना में शहनाई के छेद थोड़े महीन होते हैं उन पर गुरूजी के द्वारा इतनी सफाई से स्वरों की निष्पत्ति बड़ी ही मोहक होती थी

एक दिन गुरूजी की बड़ी सेवा की तथा फिर हिम्मत करके दबी ज़ुबान से पूछा - गुरूजी क्या मैं शहनाई सीख सकता हूँ गुरूजी ने बात को हँस कर टाल दिया कुछ दिनों बाद पुनः वही बात दुहराई इस बार उन्होंने कहा की बेटा अच्छी शहनाई मिलनी मुश्किल है पहले तुम एक बढ़िया शहनाई ले आओ फिर देखेंगे उनसे पूछा तो पता चला की बनारस में कोई बनाने वाले है, उनसे लेनी पड़ेगी शहनाई का भूत मेरे सर पर सवार था मैं बनारस जाने को तैयार हो गया गुरूजी से पता पूछा इस बार गुरूजी बिगड़ गए पहले तो डांटा, फिर उन्होंने बड़े प्यार से कहा - बेटा हम लोग ब्राह्मण के बच्चे को शहनाई नहीं सिखाते, पाप लगेगा मैं सन्न रह गया फिर अपने को सम्हाल कर कहा - गुरूजी, मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता आप सिखाइए, मैं सारा पाप अपने सर पर लेने को तैयार हूँ पर वे कहाँ मानने वाले थे अंततः उन्होंने मुझे शहनाई नहीं ही सिखाई

क्या इस के पीछे उनका वह संस्कार था जो बताता था की ऊंची जातियों के लोग शहनाई नहीं बजाते! या फिर घर का हुनर बाहर वाले के पास चले जाने का डर या फिर मेरी बांसुरी के प्रति एकाग्रता भंग होने का ख़तरा?

कुछ भी हो, मैं शहनाई तो नहीं सीख पाया पर उस साज़ के प्रति मेरा आकर्षण आज भी वैसा ही है जैसा पहले था मैं आज भी शहनाई अंग की कई चीज़ें बांसुरी पर बजाता हूँ और बाकायदा गुरूजी का नाम ले कर बजाता हूँ शायद शहनाई मेरा अगले जन्म के लिए इंतज़ार कर रही होगी

Saturday, August 21, 2010

शून्य और हमारा संगीत


कोलकाता में एक दिन अपने गुरूजी पंडित अजय चक्रवर्ती के चरणों में बैठा था. गुरूजी के हर शब्द से मानों ज्ञान का अमृत टपक रहा था। बातों बातों में गुरूजी ने कहा - हमारा संगीत चक्रीय (circular) है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा की तीन ताल की प्रथम मात्रा से जो ठेका धीर गंभीर रूप से प्रारंभ होता है वह १३ वीं मात्रा आते आते व्यग्रता में बदल जाता है. यह व्यग्रता प्रथम मात्रा तक पुनः पहुँचने की है. १६ वीं मात्रा तक व्यग्रता अपने चरम उत्कर्ष तक चली जाती है, परन्तु पहली मात्रा के आते ही पुनः धीर गंभीर और शांत यात्रा में बदल जाती है। ऐसा बार बार होता है।

उनकी बातों का सूत्र मिला तो पहले तो चकित हुआ, पर फिर समझ में आया की गुरूजी ने तो जीवन का सिद्धांत ही समझा दिया। अगर हम अपनी जीवन पद्धति और दर्शन के बारे में सोचें तो सब कुछ ही चक्रीय है। कहीं भी सरल रेखाओं के दर्शन नहीं होते। संत कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है कि -

" इस घट अंतर बाग़ बगीचे, इसी में सिरजनहारा
इस घट अंतर सात समंदर, इसी में नौलख तारा
इस घट अंतर पारस मोती इसी में परखन हारा
इस घट अंतर अनहद गरजै इसी में उठत फुहारा
कहत कबीर सुनो भाई साधो इसी में साईं हमारा।"

यह जो घट में ही सब कुछ और फिर सब कुछ में घट की परिकल्पना है, यही तो हमारा जीवन दर्शन हैसब कुछ उस घट या शून्य से प्रारम्भ होकर उसी शून्य में समा जाता है- समाप्त होने के लिए नहीं परन्तु पुनः प्रारम्भ होने के लिएहमारी तिहाईयाँ इसी को दर्शाती हैंवे ताल की अंतिम मात्रा पर समाप्त नहीं होतीं पर अगले आवर्तन की पहली मात्रा पर होती हैं जिसका अर्थ है की ताल अनवरत चल रहा है, हमने ही विश्रांति ली हैयही संयोग हमारी जीवन पद्धति में भी दिख पड़ता हैबच्चा जन्म लेता है तो उसकी देख भाल माँ बाप करते हैं, बड़ा होकर वह अपने माँ बाप की देख भाल करता है तथा जब उसके बच्चे होते हैं तो उनकी भी देख रेख करता हैयह चक्रीय व्यवस्था चलती रहती हैइसका टूटना अशुभ होता है, व्यक्ति और समाज दोनों के लिए

पाश्चात्य देशों में यह व्यवस्था रैखिक (lenear) हैवहां बच्चे का जन्म देने वाला पिता या माँ उसे जवान होते ही छोड़ देते हैंउसी प्रकार पिता या माँ के बूढ़े होने पर उनके लालन पालन की ज़िम्मेदारी बच्चे नहीं उठातेजगह जगह से चक्र सरल रेखाओं में बदल गया है जो कई बार एक दूसरे से नहीं मिलतींइसी का परिणाम है अति भौतिकतावाद तथा अति स्वकेंद्रित व्यक्ति.

इसी चक्रीय जीवन पद्धति का प्रभाव हमारे संगीत पर भी पड़ना स्वाभाविक थाहमारा संपूर्ण संगीत या कोई भी ललित कला इसी चक्रीय व्यवस्था को मान कर चलती है. हमें इस पर गर्व है

Sunday, August 15, 2010

सिखाना या सीखना

हम सिखाते हुए भी कितना कुछ सीखते हैं। बच्चों को गाना सिखाते सिखाते पता नहीं कब मैं भी सीखने लगा हूँ - सुर लगाना, ताल में गाना और निश्छल रहना ।
और हम..... बड़े होते ही घमंड से फूलने लगते हैं। बच्चे कितना भी अच्छा सुर लगाएं, उनकी प्यास बुझती ही नहीं है। हमारी तरह नहीं की सुर लगा भी नहीं और तारीफ की उम्मीद पहले हो जाती है। मेरे ख़याल से किसी भी कलाकार के लिए बच्चों के संपर्क में रहना एक वरदान ही है।

Sunday, August 8, 2010

क्वींस बैटन रिले में मेरी हिस्सेदारी

कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के क्रम में विगत ५ अगस्त २०१० को क्वींस बैटन बोकारो आयी। यह बैटन यूनाइटेड किंगडम से चल कर ७५ देशों की सीमा पार करती हुई वाघा बोर्डर से भारत आयी। विभिन्न शहरों से घूमती हुई ५ अगस्त को बोकारो आयी। बोकारो के डेप्युटी कमिश्नर श्री नितिन मदन कुलकर्णी ने बैटन का स्वागत किया। तत्पश्चात एक रिले का आयोजन किया गया जिसमें बोकारो के ५० चुनिन्दा नागरिकों ने हिस्सेदारी की।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार होने के नाते बैटन थामने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ। मेरे लिए यह गर्व का विषय था की अपने देश के एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय आयोजन का मैं भी हिस्सा बना। संध्या को हुए एक रंगारंग कार्यक्रम में मुझे बैटन की एक छोटी प्रतिकृति देकर सम्मानित भी किया गया। मेरे जीवन का यह एक यादगार क्षण था।
(कृपया स्थानीय समाचार पत्र द टेलीग्राफ में छपा समाचार पढ़ें -
http://www.telegraphindia.com/1100806/jsp/jharkhand/story_12778112.jsp)

Saturday, July 31, 2010

कलाकार और सामान्य जन

अक्सर हमें यह सुनाई और दिखाई पड़ता है की फलां फलां व्यक्ति से यह काम नहीं हो पायेगा क्योंकि - वह तो कलाकार हैकलाकार को लोग प्रशासनिक कार्यों के योग्य नहीं समझतेकई बार तो यह भी सुनाई पड़ता है की वह बड़ा भावुक है, क्योंकि कलाकार हैअभी तक कला की शिक्षा को किसी अन्य विषय की शिक्षा से दोयम दर्जे की माना जाता हैकभी कभी तो स्वयं कलाकार ही यह भेद भाव करने लगते हैं

क्या कलाकार और अन्य लोगों में कोई फर्क है? क्या कलाकार में वाकई प्रशासनिक क्षमता नहीं होती? क्या अन्य लोग भावुक नहीं होते? क्या कलाकार होना एक अपराध है? क्या कलाकार और अन्य तथाकथित सामान्य जन में कोई विभाजन है?

आईये पहले देखते हैं की कलाकार किसे कहते हैंअभिनव गुप्त के अनुसार हर वह व्यक्ति, जिसमें प्रतिभा तथा अपने मन के भावों को व्यक्त करने की क्षमता हो, कलाकार हैअर्थात कलाकार में दो गुण ज्यादह हैं, अन्य व्यक्तियों सेवे सामान्य जन की तुलना में विशिष्ट होते हैं क्योंकि वे प्रतिभा तथा उपाख्या के गुण से युक्त होते हैं. इसका अर्थ है की समान्य जन जो कार्य कर सकते हैं वे सभी कार्य कलाकारों द्वारा संपादित हो सकते हैंबल्कि यह अवश्य सत्य है की कलाकारों द्वारा किये जाने वाले कार्य सामान्य जन नहीं कर सकते

अपनी भावनाओं को सीधे सीधे कह कर उनको कला के माध्यम से कहना ही कलाकार की विशेषता हैइसके लिए अपनी भावनाओं पर काबू रखना कलाकार की दूसरी विशेषता है, जो सामान्य जन में प्रायः नहीं होतीअतः कलाकार भावुक तो किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह ही होते हैं परन्तु उनको यह भली भांति पता रहता है की अपनी भावनाओं पर काबू कैसे रखा जाए

ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जहां कलाकारों ने प्रशासनिक कार्यों का सम्पादन बड़ी ही कुशलता से किया हैसमाज उनको मौक़ा तो दे कर देखे!

मेरी यह पक्की धारणा है की समाज के इन पूर्वाग्रहों को हटा कर कलाकारों को बराबरी के मौके देने चाहिएउनसे किसी मंगल गृह वासी की तरह व्यवहार कर सामान्य जन की तरह ही व्यवहार करना चाहिए
इति

Thursday, July 29, 2010

पंडित पन्नालाल घोष





३१ जुलाई को पंडित पन्नालाल घोष जी का जन्मदिन है। वर्ष १९११ में वर्तमान बांगला देश के बारासात में आपने जन्म लिया, और इस लिहाज से उनके जन्म के सौ वर्ष पूरे हुए। संस्कृत में हा जाता है - जीवेम शरदः शतं। पन्नालाल जी इस शतं की सीमा को पार करते हुए अभी आगे के कई सौ वर्षों तक हमारे हृदयों में जीवित रहने वाले हैं। बांसुरी का एक प्रकार से पुनर्संस्थापन किया था पन्ना बाबू ने। शास्त्रीय संगीत जगत से जुडा हुआ लगभग प्रत्येक बांसुरी वादक पन्ना लाल जी का ऋणी है।

मेरे गुरुदेव, विश्व विख्यात बांसुरी वादक पंडित रघुनाथ सेठ जी पन्नालाल जी के शागिर्द हैं। मुंबई में जब वे पन्नालाल जी से सीखने लगे तो उनको बांसुरी के कई गुर सीखने को मिले। बाद में मुझे तथा अन्य शिष्यों को गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत इस का लाभ मिला। संगीत की परम्परानुसार पन्नालाल जी मेरे दादा गुरु हुए।



पन्नालाल जी की बांसुरी जब आज भी सुनते हैं तो उनकी मिठास तथा विविधता का कोई जोड़ नज़र नहीं आता। उनका बजाया हुआ राग मारवा तथा अन्य राग जब आज सुनते हैं तो अध्यात्मिक अहसास होने लगता है। पन्नालाल जी ने कई फिल्मों में भी बांसुरी बजाई थी, जो आज भी अद्वितीय है।



मेरी असीम श्रद्धांजलि तथा प्रणाम बांसुरी के इस जादूगर को।

Saturday, July 24, 2010

सांस्कृतिक पत्रकारिता पर कार्यशाला




सांस्कृतिक पत्रकारिता विषय पर कार्यशाला का कहीं आयोजन हुआ हो, ऐसा पहले तो नहीं सुना। पटना के 'विश्व संवाद केंद्र' के द्वारा जब इस कार्यशाला में रिसोर्स पर्सन के रूप में आने का निमंत्रण मिला तो मैं भी सोच में पड़ गया। पत्रकारों से मेरा पाला तो हमेशा ही पड़ता है पर उन को कुछ समझाना मुझे हमेशा से टेढ़ी खीर लगती रही है। फिर भी ... चुनौती को स्वीकार किया तथा जुलाई को रात्री पटना पहुँच गया।

स्टेशन पर पटना के रोशन जी तथा अशोक तिवारी जी लेने के लिए आये हुए थे। रोशन जी पटना के पुराने रईस हैं. उनके घर पर ही ठहरने की व्यवस्था थी. मैं होटलों में ठहरने का आदी हूँ, पर रोशन जी के घर जा कर ऐसा लगा मानो मंदिर में जा रहा हूँ। मुझसे पूर्व उनके घर जिन महानुभावों का पदार्पण हो चूका था उनमें डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, पंडित ओमकार नाथ ठाकुर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान तथा अन्य कई विभूतियाँ शामिल थीं।

अगले दिन सुबह विश्व संवाद केंद्र के सुंदर से हाल में चल रही कार्यशाला में भाग लेने पहुंचा। अभी हाल में दाखिल ही हुआ था की एक चिर परिचित रोबदार आवाज़ ने दरवाज़े से ही स्वागत किया - ' आओ चेतन आओ!' देखा मंच पर पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत तथा बिहार संगीत नाटक अकादमी के पूर्व सचिव श्रद्धेय गजेन्द्र नारायण सिंह जी बुला रहे थे। कार्यशाला में प्रथम कक्षा उन्होंने ही ली। विषय था - संगीत जगत को खान साहबों का योगदान। बोलने के क्रम में उन्होंने जो संस्मरण सुनाये वे लाजवाब थे तथा शोध परक तथ्यों से भरे हुए थे। लगभग एक घंटा धाराप्रवाह बोलने के बाद एक छोटा सा ब्रेक हुआ तथा बोलने के लिए मुझे बुलाया गया। तत्पश्चात मैंने संगीत, संस्कार, संस्कृति, कलाकार, राग तथा ऐसे ही कुछ शब्दों की विस्तृत चर्चा की जिनसे पत्रकारों को लेखन के कर्म में अक्सर पाला पड़ता है. कार्यशाला में लगभग ३० शिक्षार्थी भाग ले रहे थे.

सांस्कृतिक पत्रकारिता के समबन्ध में कुछ टिप्स देने के बाद मैं बैठ गया। प्रश्नोत्तर कार्यक्रम के बाद कार्यशाला का समापन समारोह आयोजित था। संपूर्ण कक्षा लगभग घंटों की थी तथा गजेन्द्र जी ७५ वर्षों की आयु के बावजूद पूरे समय बैठे रहे तथा मेरी हौसला अफजाई करते रहे, यह मेरा सौभाग्य था। तीन दिनों की कार्यशाला में जिन अन्य विद्वानों ने भागीदारी की उनमें पटना आर्ट कालेज के पूर्व प्राचार्य तथा अंतर्राष्ट्रीय चित्रकार श्री श्याम शर्मा जी, काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के ललित कला संकाय से श्री सुनील विश्वकर्मा जी, वरिष्ठ पत्रकार श्री रवि किरण जी प्रमुख थे। इतने सारे विद्वानों के बीच बैठना अपने आप में एक गौरव की बात थी। बहुत ही अच्छे ढंग से बीते समय कई यादों की थाती संजोये मैं वापसी के लिए निकल पड़ा
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Friday, July 23, 2010

गुरु श्रद्धांजलि

गुरूजी नहीं रहे, यकीन ही नहीं होता जुलाई की सुबह ही यह दुखद समाचार मिला की मेरे प्रथम गुरु श्रद्धेयआचार्य जगदीश जी नहीं रहेजब यह समाचार मिला तब मैं ट्रेन में थाआँखें भर आयींगुरूजी पक्षाघात से तोकई दिनों से पीड़ित थे, परन्तु धीरे धीरे ठीक भी होते जा रहे थेफिर अचानक ये क्या हुआ! कुछ समझ में नहीं रहा थामन ही मन उनको प्रणाम किया

मैंने आचार्य जगदीश जी से वर्ष १९८२ के अप्रैल मास में सीखना शुरू किया थाअलंकारों तथा राग भूपाली के स्वरोंसे सीखने की शुरुआत हुईआचार्य जी मूलतः गायक थे परन्तु अन्य विधाओं, विशेष कर तबला पखावज के भीविद्वान् थेबांसुरी के विषय में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं थी परन्तु जितनी थी, मेरे लिए बहुत थीआज जो कुछभी उपलब्धियां मेरी हैं उनकी नींव गुरूजी ने ही रखी थी.

बिहार के एक ज़मींदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद संगीत के प्रति उनका समर्पण उस दौरान बहुत दुर्लभ थापंडित ओमकार नाथ ठाकुर जैसे प्रकांड विद्वान से कला की राजधानी काशी में संगीत की शिक्षा आपने ग्रहण कीथीसंगीत का शायद ही कोई प्रख्यात समारोह होगा जिसमें गुरूजी का गायन हुआ होमैंने बहुत गायकों कागायन सुना है पर ऐसा गायक नहीं सुना जो पहले से यह घोषणा कर के गाये की - "पांच बंदिशें गाऊँगा और तबलावादक एक भी बंदिश का सम (शुरुआत की मात्रा) नहीं पकड़ पायेंगे." और ऐसा ही होता थापूज्य पंडित किशनमहाराज तथा काशी के संगीत जगत के अन्य प्रखर विद्वान भी उनकी इस क्षमता का लोहा मानते थे

मेरी तथा संगीत जगत की और से आचार्य जी को श्रद्धांजलि तथा शत शत नमन.

Monday, May 31, 2010

गांतोक यात्रा







अभी हाल ही में गांतोक से लौटा हूँ। वहां तीन दिनों की कार्यशाला का आयोजन संस्कार भारती की सिक्किम प्रान्त इकाई ने किया था।


लगभग बीस प्रतिभागियों ने एक साथ रह कर अपनी कला संस्कृति से सम्बंधित जानकारियाँ प्राप्त कीं।
मेरी भूमिका रीसोर्स परसन की थी। संपूर्ण कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा

मेरी बांसुरी


सुर तो सारे ही अपने हैं, सपने भी सारे अपने हैं,
सुनना भी और गुनना भी, फिर सब कुछ पाना अपना है,
तब जिस खातिर इतना मोल लिया वह बंसी मेरी क्यों ना हो,
बंसी के हर छेद पे मेरा हस्ताक्षर फिर क्यों न हो,
प्रतिबिम्ब मेरा, मेरी कहानी, मेरा जीवन मेरी जुबानी,
है तो मेरी, बाँसुरी मेरी है, पर सुर की सरिता सभी की है,

मेरी बाँसुरी मेरी है, पर साझेदारी सब की है.