नोटबन्दी और मैं ......
यह तो पहले से ही तय था की ब्लॉग मेरी मर्ज़ी या कह लें मौज आने पर ही लिखूँगा। मन हो तो कई और मन न हो तो एक भी नहीं। इसी नीति पर चलते हुए आज एक और पोस्ट लिख रहा हूँ।
दरअसल 500 - 1000 के नोटों को बन्द करने पर जो तूफ़ान सा आ गया है, उस पर मैंने अब तक अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। सोचा आज इस विषय पर लिखूं। कुछ लोगों को पसन्द आये और शायद कुछ को न भी आये। पर मैंने इसकी परवाह कब की है जो आज करूँगा? हाँ, इतना अवश्य है की उधार का नहीं पर जो कुछ खुद पर गुज़री है उसी के आधार पर लिखूँगा।
8 नवम्बर की तारीख से ही शुरू करता हूँ। शाम को टीवी चैनल्स पर खबर आयी कि रात को 8 बजे प्रधानमंत्री जी राष्ट्र को सम्बोधित करने वाले हैं। मुझे कुछ अटपटा सा लगा क्योंकि मन की बात तो वे करते ही रहते हैं। फिर इस विशेष सम्बोधन की क्या ज़रुरत थी? सो सब कुछ छोड़ कर टीवी देखने लगा। टीवी के ज्ञानी पत्रकार अटकलें भी लगाने लगे थे कि मोदी जी आखिर क्या कहना चाहते होंगे। कुछ ने तो 2 और 2 चार भी करना शुरू कर दिया था- दिन में मोदी जी तीनों सेनाओं के प्रमुखों से अलग अलग मिले हैं अतः ज़रूर पकिस्तान के साथ युद्ध से जुड़ा हुआ कोई मुद्दा होगा। पर जब मोदी जी ने बोलना शुरू किया तो सबको अचम्भे में डाल दिया। यह तो मुद्दा ही कुछ और निकला!
घोषणा होने के बाद मेरे घर का तो दृश्य ही बदल गया। घर के कामों के लिए हाल ही में नगदी निकली थी। एटीएम से निकाली थी तो ज़ाहिर है "वही" नोट थे। मेरे तथा पत्नी के पर्स में जो भी नगदी थी (कुछ छिपा हुआ स्त्री धन भी) सब गिनी गयी और इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि कुछ दिन का इंतज़ार किया जा सकता है। 100 तथा 10 -20 के जितने नोट घर में थे वे तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त लगे। इस आर्थिक माथापच्ची के बीच टीवी भी देखा जा रहा था तथा उसमें सर्वज्ञानी पत्रकारों को भी चकराया हुआ देख कर परम सन्तुष्टि का अनुभव भी हो रहा था। अगले दिन बैंक तो बन्द ही थे।
पत्नी के विद्यालय में एक एटीएम है, जहाँ बिलकुल भीड़ नहीं थी तथा बड़े आराम से 100 - 100 के नोटों की शक्ल में 2000 रूपये निकल गए। अब तो बिलकुल भी चिंता न थी। अपने राम मस्त थे। महानगर में रहने के कारण राशन, दूध, सब्जी, फल, सीएनजी; यानि सब कुछ तो कार्ड से खरीदा जा सकता था।
मज़ा तो तब आया जब हम कपड़ों की शॉपिंग करने निकले। बेटे के लिए स्वेटर आदि लेने आवश्यक हो गए थे। बाजार पहुंचे तो वहां का नज़ारा भी बदला हुआ था। भीड़ बिलकुल कम और दुकानदार बिलकुल वीआईपी की तरह स्वागत करते दिखे। फुटपाथ पर भी पेटीएम के बोर्ड लगे थे। अर्थात यदि नकदी न हो तो भी कोई बात नहीं. टैक्सी और ऑटो वाले तो पहले से ही कार्ड तथा पेटीएम से पैसे लेने लगे थे।
कुछ दिनों के बाद अपनी नगदी लेकर बैंक पहुँचा तो वहां भी सुखद अनुभव ही हुआ। बैंक के लोगों ने दो तीन फॉर्म दिए भरने को तथा पैसे जमा कर लिए। पूरी प्रक्रिया में 10 मिनटों से ज़्यादा नहीं लगे। भीड़ बिलकुल नहीं थी। विजयी मुद्रा में घर वापसी हुई और पत्नी से शाबासी मिली वह अलग।
व्हाटसअप तथा फ़ेसबुक में विभिन्न पोस्ट्स पढ़ कर जो अंदाज़ लगाया था वह बिलकुल ही निराधार निकला। हाँ, एटीएम के आगे लाईनें ज़रूर लम्बी दिखीं। पर अब तो वो भी छोटी होती दिखाई दे रही हैं। और वह भी तब जब 50 दिनों में से अभी 15 दिन ही तो बीते हैं!