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Flutist of Indian Classical music genre

Saturday, December 11, 2010

ताल वाद्यों की सीमा

तबला वादन का कार्यक्रम था। एक प्रसिद्ध तबला वादक का तबला एकल वादन चल रहा था। वादक अपनी पूरी क्षमता से बजा रहे थे। उनकी उँगलियों की तैयारी देखते ही बनती थी। विभिन्न बोलों की विविधता देखते ही बनती थी। साथ ही हारमोनियम पर सुंदर लहरा भी बज रहा था। श्रोताओं की वाह वाह रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। इतना सुंदर माहौल होते हुए भी थोड़ी देर के बाद मुझे सारे बोल एक जैसे लगने लगे। मुझे सूझ ही नहीं रहा था की सारे बोल एकरूप क्यों लग रहे हैं। दिमाग दौडाने लगा तो एक कारण मिला जिसका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ, शायद आप भी सहमत होंगे।

तबले को षड्ज से मिलाया जाता है। परिणाम स्वरुप उसमें जितने भी बोल बजते हैं, वे सभी एक ही सुर यानी सा के ही रूप होते हैं। अधिक से अधिक उसमें एक स्वर और निकल सकता है, और वह है ऋषभ या रे। अब सिर्फ सा और रे की विविधता को कोई व्यक्ति कितना सुन सकता है? शायद यही कारण है की एक अंतराल के बाद तबला वादन की एकरूपता (monotony) बढ़ जाती है तथा वह उबाऊ बनता जाता है. लय की विविधता के कारण रोचकता कुछ समय तक तो बनी रहती है पर धीरे धीरे वह भी समाप्त हो जाती है।

इस एकरूपता को तोड़ने के लिए कई तबला वादकों ने अथक प्रयास किये हैं। उदाहरण के लिए सुरों की विविधता को भरने के लिए बाएं का प्रयोग विभिन्न प्रकार से करते हैं। लहरे के माध्यम से भी विविधता लाने के प्रयास किये गए हैं। फिर भी अभी तक वह स्थिति नहीं ई है की किसी स्वर वाद्य की तरह यह ताल वाद्य भी लम्बे समय तक सुना जा सके। अभी और बहुत लम्बी यात्रा बाकी है...