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Flutist of Indian Classical music genre

Friday, August 27, 2010

इलाहाबाद के वो दिन


बांसुरी सीखने की शुरुआत तो मैंने की स्वर्गीय आचार्य जगदीश जी से, परन्तु बाद में लगने लगा की किसी बांसुरी वादक से भी सीखना चाहिए। इस क्रम मेरी पहली पसंद थे भोलानाथ जी। अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता के दौरान मैं उनसे मिल चुका था तथा उस प्रतियोगिता में उनके एक शागिर्द को हराने की वजह से वो भी थोड़ा बहुत मुझको जानते थे। मैंने निश्चय किया की इलाहाबाद जाकर भोलानाथ जी से बांसुरी सीखी जाए। मैंने चास कोलेज से आई कॉम की पढ़ाई पूरी की तथा बी कॉम के लिए पिताजी से इलाहाबाद जाने की इजाजत माँगी। हम लोग थोड़ी आमदनी में गुज़ारा करते थे। फिर भी थोड़ी आनाकानी के बाद इजाज़त मिल ही गयी। मैंने इलाहाबाद जाने के लिए बोरिया बिस्तर बाँध लिया। इलाहबाद पहुँचने के बाद सब से पहला काम किया, गुरूजी के घर फोन किया। उन्होंने मुझे घर बुला लिया।

भोलानाथ जी का घर सिविल लाइंस के पास बहुगुणा मार्केट के पास था। गुरूजी खाट पर आंगन में बैठे हुए थे। मैंने प्रणाम किया तथा उनसे मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया। गुरूजी ने थोड़ा सोचा और फिर कहा - शुरू से सीखना होगा। मैंने कहा - स्वीकार है। अगले दिन से शुरुआत की बात तय हो गयी। मेरी तो खुशी का ठिकाना न था। मेरा स्वप्न जो साकार हो रहा था।

अगले दिन मैंने इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में दाखिला ले लिया जो गुरूजी के घर से बहुत दूर था। एक पुरानी साइकल खरीद ली आने जाने के लिए। गुरूजी के घर के पास ही एक किराये का कमरा ले कर रहने लगा। अब मेरी दिनचर्या कुछ ऐसी हो गयी की सुबह उठ कर पहला काम था रियाज़ करना। फिर कोलेज जाना। दोपहर तक लौट कर गुरूजी के घर जा कर सीखना और फिर वहां से रात को मेरे तबला वादक मित्र नटराज के घर जा कर रियाज़ करना। दिन भर में ३० -४० किलोमीटर की साइकिल यात्रा तो हो ही जाती थी। लौटते हुए अक्सर रात के ११ बज जाते थे और वह समय होता था आवारा कुत्तों का... । बाद में मैंने उनसे पीछा छुडाने की तरकीब भी इजाद कर ली थी।

गुरूजी का सिखाने का तरीका बड़ा ख़ास था। वे शाम को बांसुरी लेकर बैठ जाते थे। आस पास में हम शिष्य गण अपनी बांसुरी लेकर बैठते थे। गुरूजी कोई भी राग शुरू कर देते थे और हम लोगों को साथ बजाने को कहते। राग कौन सा होगा इसकी कोई गारंटी नहीं थी। जो भी मन में आ जाये! इस बीच अगर किसी शिष्य ने राग का परिचय पूछ लिया तो उसकी खैर नहीं। राग बजाओ और घर जा कर उसके बारे में किताबों में खोजो। आप सीखते वक्त नोटेशन भी नहीं लिख सकते थे। हाँ अगर गुरूजी खुद ही मौज में आकर राग के बारे में बताने लगें तो बात अलग है, वरना.... ।

इस तरह सीखने से कई फायदे हुए। रागों के बारे में शोध करने की प्रवृत्ति बड़ी, बंदिशें और परिचय याद रहने लगे तथा किसी भी स्वर समूह को पहचानने की क्षमता बढ़ी. गुरूजी स्वर्गीय पंडित महादेव मिश्र जी के शिष्य थे, सो गाते भी बहुत अच्छा थे। गुरूजी के साथ बिताये वे क्षण मैं शायद कभी नहीं भूल पाउँगा।

2 comments:

  1. I heard about Pt. Bholanathji, but only from ur writeup I came to know about his life even. Thanks and pl continue writing on
    Pranam
    Prosenjit

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