आज सुन रहा था पंडित दया शंकर जी की शहनाई। स्पिक मेके के एक आयोजन में बैठा था। पंडित जी ने गुर्जरी तोड़ी में गत से शुरुआत की। बाद में एक बनारसी धुन और फिर भैरवी.... । मज़ा आ गया। पंडित जी को मैंने बताया की बोकारो में उनकी तीन पीढियां कार्यक्रम दे चुकी हैं - उनके पिता जी पंडित अनंत लाल जी तथा उनके दोनों सुपुत्र आनंद शकर तथा सचिन शंकर भी। यही नहीं उनके दामाद श्री प्रमोद गायकवाड भी हम लोगों को अपनी मधुर शहनाई का रसास्वादन करा चुके हैं।
शहनाई के स्वरों के साथ डूबता उतराता मैं अपने ख्यालों में पहुँच गया अपने गुरुदेव स्वर्गीय पंडित भोलानाथ जी के ज़माने में। बताता चलूँ की भोलानाथ जी, दयाशंकर जी के चाचा थे। इलाहाबाद में मैं सन १९८५ में गुरूजी से बांसुरी सीखने गया था। वहां रहकर लगभग दो वर्षों तक सीखा तथा बाद में आना जाना करता रहा। गुरूजी बांसुरी के तो सुविख्यात कलाकार थे ही, शहनाई, सक्सोफोन तथा क्लार्नेट के भी बड़े उम्दा कलाकार थे। सीखने के क्रम में कई बार भोलानाथ जी की शहनाई सुनी। उनकी शहनाई में जो बात थी वह मुझे किसी अन्य कलाकार में नहीं मिली। शहनाई की सुरीली आवाज़ और उन पर गुरूजी की सधी हुई उंगलियाँ जो कमाल दिखाती थीं वह अवर्णनीय है। मुझे उनकी बांसुरी तो अच्छी लगती ही थी, पर शहनाई का तो मैं दीवाना बन गया था। बांसुरी की तुलना में शहनाई के छेद थोड़े महीन होते हैं। उन पर गुरूजी के द्वारा इतनी सफाई से स्वरों की निष्पत्ति बड़ी ही मोहक होती थी।
शहनाई के स्वरों के साथ डूबता उतराता मैं अपने ख्यालों में पहुँच गया अपने गुरुदेव स्वर्गीय पंडित भोलानाथ जी के ज़माने में। बताता चलूँ की भोलानाथ जी, दयाशंकर जी के चाचा थे। इलाहाबाद में मैं सन १९८५ में गुरूजी से बांसुरी सीखने गया था। वहां रहकर लगभग दो वर्षों तक सीखा तथा बाद में आना जाना करता रहा। गुरूजी बांसुरी के तो सुविख्यात कलाकार थे ही, शहनाई, सक्सोफोन तथा क्लार्नेट के भी बड़े उम्दा कलाकार थे। सीखने के क्रम में कई बार भोलानाथ जी की शहनाई सुनी। उनकी शहनाई में जो बात थी वह मुझे किसी अन्य कलाकार में नहीं मिली। शहनाई की सुरीली आवाज़ और उन पर गुरूजी की सधी हुई उंगलियाँ जो कमाल दिखाती थीं वह अवर्णनीय है। मुझे उनकी बांसुरी तो अच्छी लगती ही थी, पर शहनाई का तो मैं दीवाना बन गया था। बांसुरी की तुलना में शहनाई के छेद थोड़े महीन होते हैं। उन पर गुरूजी के द्वारा इतनी सफाई से स्वरों की निष्पत्ति बड़ी ही मोहक होती थी।
एक दिन गुरूजी की बड़ी सेवा की तथा फिर हिम्मत करके दबी ज़ुबान से पूछा - गुरूजी क्या मैं शहनाई सीख सकता हूँ। गुरूजी ने बात को हँस कर टाल दिया। कुछ दिनों बाद पुनः वही बात दुहराई। इस बार उन्होंने कहा की बेटा अच्छी शहनाई मिलनी मुश्किल है। पहले तुम एक बढ़िया शहनाई ले आओ फिर देखेंगे। उनसे पूछा तो पता चला की बनारस में कोई बनाने वाले है, उनसे लेनी पड़ेगी। शहनाई का भूत मेरे सर पर सवार था। मैं बनारस जाने को तैयार हो गया। गुरूजी से पता पूछा। इस बार गुरूजी बिगड़ गए। पहले तो डांटा, फिर उन्होंने बड़े प्यार से कहा - बेटा हम लोग ब्राह्मण के बच्चे को शहनाई नहीं सिखाते, पाप लगेगा। मैं सन्न रह गया। फिर अपने को सम्हाल कर कहा - गुरूजी, मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता। आप सिखाइए, मैं सारा पाप अपने सर पर लेने को तैयार हूँ। पर वे कहाँ मानने वाले थे। अंततः उन्होंने मुझे शहनाई नहीं ही सिखाई।
क्या इस के पीछे उनका वह संस्कार था जो बताता था की ऊंची जातियों के लोग शहनाई नहीं बजाते! या फिर घर का हुनर बाहर वाले के पास चले जाने का डर या फिर मेरी बांसुरी के प्रति एकाग्रता भंग होने का ख़तरा?
कुछ भी हो, मैं शहनाई तो नहीं सीख पाया पर उस साज़ के प्रति मेरा आकर्षण आज भी वैसा ही है जैसा पहले था। मैं आज भी शहनाई अंग की कई चीज़ें बांसुरी पर बजाता हूँ और बाकायदा गुरूजी का नाम ले कर बजाता हूँ। शायद शहनाई मेरा अगले जन्म के लिए इंतज़ार कर रही होगी।
क्या इस के पीछे उनका वह संस्कार था जो बताता था की ऊंची जातियों के लोग शहनाई नहीं बजाते! या फिर घर का हुनर बाहर वाले के पास चले जाने का डर या फिर मेरी बांसुरी के प्रति एकाग्रता भंग होने का ख़तरा?
कुछ भी हो, मैं शहनाई तो नहीं सीख पाया पर उस साज़ के प्रति मेरा आकर्षण आज भी वैसा ही है जैसा पहले था। मैं आज भी शहनाई अंग की कई चीज़ें बांसुरी पर बजाता हूँ और बाकायदा गुरूजी का नाम ले कर बजाता हूँ। शायद शहनाई मेरा अगले जन्म के लिए इंतज़ार कर रही होगी।
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