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Flutist of Indian Classical music genre

Saturday, September 11, 2010

विनोबा भावे विश्वविद्यालय का युवा महोत्सव '१०


उम्मीद मुझे भी नहीं थी की इतने ज्यादह पोस्ट्स लिख पाऊंगा, पर कभी कभी खुद पे भी अचम्भा होता है। ब्लोग्स लिखना मेरे लिए खुद से बातचीत करने जैसा है। जो भी मन में आये लिख डालो। बिना इस बात की परवाह किये की उसे कौन और क्यों पढ़ रहा है।

हाल ही में बोकारो में युवाओं का एक बड़ा कला आयोजन हुआ - प्रतिबिम्ब '१०। वास्तव में यह विनोबा भावे विश्वविद्यालय का सोलहवां युवा महोत्सव था जिसमें विभिन्न कोलेजों के लगभग १००० प्रतिभागियों ने भाग लिया। मुझे विश्वविद्यालय ने चयनकर्ता के रूप में मनोनीत किया था। यह एक बड़ा सम्मान था। पूरे तीन दिनों तक क्षेत्र की युवा प्रतिभाओं से मिलना, उनसे बातचीत करना, उन्हें आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देना और उनके कला प्रदर्शन का लुत्फ़ उठाना आखिर किसे नहीं भाएगा। संगीत, नृत्य, दृश्य कलाएं तथा नाट्य कलाएं इस महोत्सव की प्रमुख विधाएं थीं।

निर्णायकों के रूप में कला जगत के कई महारथियों से मिलना भी संभव हो पाया। गायन के क्षेत्र में कुछ अच्छी आवाजें सुन ने को मिलीं। ऐसा ही नृत्य के क्षेत्र में भी हुआ। मन आश्वस्त हुआ इन विधाओं के भविष्य के बारे में। पर वाद्य संगीत तथा दृश्य कलाओं के विषय में ऐसा नहीं था। पूरे वादन विभाग में, चाहे वह ताल वाद्य हों या स्वर वाद्य, प्रतिभागी ही नहीं थे। विजेताओं की बात तो बाद में आती है। यह स्थिति दर्शाती है की आज के युवजन वाद्य संगीत में मेहनत नहीं करना चाहते। वे ऐसी विधाओं के प्रति ज्यादह आकर्षित हो रहे हैं जिन्हें टी वी चैनलों पर ज्यादह तवज्जोह दी जाती है। पूरे क्षेत्र में एक भी युवा वादक नहीं मिलने से गुरु जनों की कमी भी समझ में आ रही है।

कुछ प्रतिभा शाली युवाओं से बात की तो पता चला की जो उभर कर सामने आ रहे हैं वे भी सीखने के प्रति गंभीर नहीं हैं। किसी प्रकार से दर्शकों की ताली और प्रशंसा बटोर ली जाये, यही उनका एक मात्र लक्ष्य बन गया है। कलाओं का मूल उद्देश्य - "सौंदर्य की अभिव्यक्ति" से जैसे उनका ध्यान ही हट गया है। आज आवश्यकता है समाज में समाप्त हो रही इन कला विधाओं को बचाना तथा इन क्षेत्रों में काम कर रहे गुरु जनों को उचित सम्मान दिलाना। तभी योग्य शिष्य तैयार हो पायेंगे।