गुरूजी नहीं रहे, यकीन ही नहीं होता। ५ जुलाई की सुबह ही यह दुखद समाचार मिला की मेरे प्रथम गुरु श्रद्धेयआचार्य जगदीश जी नहीं रहे। जब यह समाचार मिला तब मैं ट्रेन में था। आँखें भर आयीं। गुरूजी पक्षाघात से तोकई दिनों से पीड़ित थे, परन्तु धीरे धीरे ठीक भी होते जा रहे थे। फिर अचानक ये क्या हुआ! कुछ समझ में नहीं आरहा था। मन ही मन उनको प्रणाम किया।
मैंने आचार्य जगदीश जी से वर्ष १९८२ के अप्रैल मास में सीखना शुरू किया था। अलंकारों तथा राग भूपाली के स्वरोंसे सीखने की शुरुआत हुई। आचार्य जी मूलतः गायक थे परन्तु अन्य विधाओं, विशेष कर तबला व पखावज के भीविद्वान् थे। बांसुरी के विषय में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं थी परन्तु जितनी थी, मेरे लिए बहुत थी। आज जो कुछभी उपलब्धियां मेरी हैं उनकी नींव गुरूजी ने ही रखी थी.
बिहार के एक ज़मींदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद संगीत के प्रति उनका समर्पण उस दौरान बहुत दुर्लभ था। पंडित ओमकार नाथ ठाकुर जैसे प्रकांड विद्वान से कला की राजधानी काशी में संगीत की शिक्षा आपने ग्रहण कीथी। संगीत का शायद ही कोई प्रख्यात समारोह होगा जिसमें गुरूजी का गायन न हुआ हो। मैंने बहुत गायकों कागायन सुना है पर ऐसा गायक नहीं सुना जो पहले से यह घोषणा कर के गाये की - "पांच बंदिशें गाऊँगा और तबलावादक एक भी बंदिश का सम (शुरुआत की मात्रा) नहीं पकड़ पायेंगे." और ऐसा ही होता था। पूज्य पंडित किशनमहाराज तथा काशी के संगीत जगत के अन्य प्रखर विद्वान भी उनकी इस क्षमता का लोहा मानते थे।
मेरी तथा संगीत जगत की और से आचार्य जी को श्रद्धांजलि तथा शत शत नमन.
NICE TO KNOW ABOUT YOUR GURU.
ReplyDeleteProsenjit