कोलकाता में एक दिन अपने गुरूजी पंडित अजय चक्रवर्ती के चरणों में बैठा था. गुरूजी के हर शब्द से मानों ज्ञान का अमृत टपक रहा था। बातों बातों में गुरूजी ने कहा - हमारा संगीत चक्रीय (circular) है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा की तीन ताल की प्रथम मात्रा से जो ठेका धीर गंभीर रूप से प्रारंभ होता है वह १३ वीं मात्रा आते आते व्यग्रता में बदल जाता है. यह व्यग्रता प्रथम मात्रा तक पुनः पहुँचने की है. १६ वीं मात्रा तक व्यग्रता अपने चरम उत्कर्ष तक चली जाती है, परन्तु पहली मात्रा के आते ही पुनः धीर गंभीर और शांत यात्रा में बदल जाती है। ऐसा बार बार होता है।
उनकी बातों का सूत्र मिला तो पहले तो चकित हुआ, पर फिर समझ में आया की गुरूजी ने तो जीवन का सिद्धांत ही समझा दिया। अगर हम अपनी जीवन पद्धति और दर्शन के बारे में सोचें तो सब कुछ ही चक्रीय है। कहीं भी सरल रेखाओं के दर्शन नहीं होते। संत कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है कि -
उनकी बातों का सूत्र मिला तो पहले तो चकित हुआ, पर फिर समझ में आया की गुरूजी ने तो जीवन का सिद्धांत ही समझा दिया। अगर हम अपनी जीवन पद्धति और दर्शन के बारे में सोचें तो सब कुछ ही चक्रीय है। कहीं भी सरल रेखाओं के दर्शन नहीं होते। संत कबीर ने अपने एक दोहे में कहा है कि -
" इस घट अंतर बाग़ बगीचे, इसी में सिरजनहारा
इस घट अंतर सात समंदर, इसी में नौलख तारा।
इस घट अंतर पारस मोती इसी में परखन हारा
इस घट अंतर अनहद गरजै इसी में उठत फुहारा
कहत कबीर सुनो भाई साधो इसी में साईं हमारा।"
इस घट अंतर सात समंदर, इसी में नौलख तारा।
इस घट अंतर पारस मोती इसी में परखन हारा
इस घट अंतर अनहद गरजै इसी में उठत फुहारा
कहत कबीर सुनो भाई साधो इसी में साईं हमारा।"
यह जो घट में ही सब कुछ और फिर सब कुछ में घट की परिकल्पना है, यही तो हमारा जीवन दर्शन है। सब कुछ उस घट या शून्य से प्रारम्भ होकर उसी शून्य में समा जाता है- समाप्त होने के लिए नहीं परन्तु पुनः प्रारम्भ होने के लिए। हमारी तिहाईयाँ इसी को दर्शाती हैं। वे ताल की अंतिम मात्रा पर समाप्त नहीं होतीं पर अगले आवर्तन की पहली मात्रा पर होती हैं जिसका अर्थ है की ताल अनवरत चल रहा है, हमने ही विश्रांति ली है। यही संयोग हमारी जीवन पद्धति में भी दिख पड़ता है। बच्चा जन्म लेता है तो उसकी देख भाल माँ बाप करते हैं, बड़ा होकर वह अपने माँ बाप की देख भाल करता है तथा जब उसके बच्चे होते हैं तो उनकी भी देख रेख करता है। यह चक्रीय व्यवस्था चलती रहती है। इसका टूटना अशुभ होता है, व्यक्ति और समाज दोनों के लिए।
पाश्चात्य देशों में यह व्यवस्था रैखिक (lenear) है। वहां बच्चे का जन्म देने वाला पिता या माँ उसे जवान होते ही छोड़ देते हैं। उसी प्रकार पिता या माँ के बूढ़े होने पर उनके लालन पालन की ज़िम्मेदारी बच्चे नहीं उठाते। जगह जगह से चक्र सरल रेखाओं में बदल गया है जो कई बार एक दूसरे से नहीं मिलतीं। इसी का परिणाम है अति भौतिकतावाद तथा अति स्वकेंद्रित व्यक्ति.
इसी चक्रीय जीवन पद्धति का प्रभाव हमारे संगीत पर भी पड़ना स्वाभाविक था। हमारा संपूर्ण संगीत या कोई भी ललित कला इसी चक्रीय व्यवस्था को मान कर चलती है. हमें इस पर गर्व है।
पाश्चात्य देशों में यह व्यवस्था रैखिक (lenear) है। वहां बच्चे का जन्म देने वाला पिता या माँ उसे जवान होते ही छोड़ देते हैं। उसी प्रकार पिता या माँ के बूढ़े होने पर उनके लालन पालन की ज़िम्मेदारी बच्चे नहीं उठाते। जगह जगह से चक्र सरल रेखाओं में बदल गया है जो कई बार एक दूसरे से नहीं मिलतीं। इसी का परिणाम है अति भौतिकतावाद तथा अति स्वकेंद्रित व्यक्ति.
इसी चक्रीय जीवन पद्धति का प्रभाव हमारे संगीत पर भी पड़ना स्वाभाविक था। हमारा संपूर्ण संगीत या कोई भी ललित कला इसी चक्रीय व्यवस्था को मान कर चलती है. हमें इस पर गर्व है।
अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
ReplyDeleteकल (23/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com