लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आपको बाँसुरी बजाने का शौक कैसे पैदा हुआ ? देखा जाये तो मुझे खुद नहीं पता की ऐसा कैसे हुआ। लेकिन इस सीधे से सवाल का लम्बा सा जो जवाब है, वह कभी न कभी तो मुझे देना ही था। सोचा आज ही क्यों नहीं? अब आप इसमें ऊबेंगे या मज़ा लेंगे यह मैं नहीं जानता।
कहानी की शुरुआत होती है मेरे बचपन के गाँव नोआमुंडी से। तीसरी तक की शिक्षा मेरे घर के बिलकुल पास स्थित प्राइमरी विद्यालय से हुई। उस के बाद की पढ़ाई बहुत दूर के मिड्ल स्कूल में शुरू हुई। मैं तब कक्षा चौथी का विद्यार्थी था। मिड्ल स्कूल की तो हर बात निराली लगती थी। हम अचानक ख़ुद को बड़ा और ज़िम्मेदार मह्सूस करने लगे थे।
इतनी सारी नई बातों में एक दिन यह भी जुड़ गया की गणतन्त्र दिवस की परेड के लिए हम सभी बच्चों को मार्च पास्ट की ट्रेनिंग मिलने लगी। ट्रेनिंग का दौर बड़ा थकाने वाला होता था। कड़कड़ाती सर्दी में सुबह सुबह बड़े से मैदान के कई चक्कर लगाने पड़ते थे। ऊपर से गलत कदम मिलाने पर कस कर डाँट भी पड़ती थी। परेड के दौरान किसी को भी कक्षा में रहने की अनुमति नहीं थी। कोई बहाना काम नहीं करता था।
एक दो दिनों के बाद हम दोस्तों ने देखा की हमारे क्लास की एक लड़की कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद मार्च पास्ट के समय मैदान में नहीं आती थी। जब हम लोगों ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि वह तो बैंड की प्रैक्टिस में जाती है। हमारे लिए यह एक बिलकुल नई बात थी। मैंने उस से पूछा की यह बैंड क्या होता है, तो उस ने बड़े जलाने वाले अंदाज़ में बताया की हम तो बैंड में संगीत के वाद्य बजाते हैं। उसमें बाँसुरी, ड्रम्स, बिगुल इत्यादि हैं। ऊपर से उसने यह भी बताया की बैंड मास्टर सर तो बड़े प्यार से सिखाते हैं और मज़ाक भी करते हैं। गणतंत्र दिवस नज़दीक आने पर बाद में बैंड वालों के साथ जब परेड की प्रैक्टिस होती थी, तो उन लोगों का बड़ा ख़ास ध्यान रखा जाता था। यह देख कर हम लोगों ने भी बैंड में जाने की भरपूर कोशिश की, पर बैंड में कोई रिक्ति नहीं होने की बात कह कर हमें वापस कर दिया जाता था। गणतंत्र दिवस समारोह के कई दिनों बाद भी हमने देखा कि बैंड के बच्चे कई पड़ोस के शहरों में प्रदर्शन के लिए ले जाये जाते थे, वह भी बड़ी सी बस में। हमारा तो मारे जलन के बुरा हाल था। पर कर भी क्या सकते थे?
अगली कक्षा में मैं चास आ गया, जहाँ राम रूद्र हाई स्कूल में मेरा दाख़िला हो गया। वहाँ कई वर्षों तक संगीत सीखने का ऐसा कोई मौका नहीं था। क्लास नवीं में आने के बाद मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने लगा था। दसवीं कक्षा में पहुंचने के बाद एक दिन शाखा में सूचना मिली की जो लोग घोष यानि संघ के बैंड का प्रशिक्षण लेना चाहते हैं, वे अपना नाम दे दें। बचपन के घाव हरे हो गए। मैंने ठान लिया की कुछ भी हो जाये, इस बार मौका हाथ से निकलने नहीं देना है।
घोष यानि बैंड सिखाने के लिए जो शिक्षक आये, उनका नाम था श्री रविंद्र ओकील। नागपुर से पधारे थे तथा संघ के प्रचारक थे। उन्होंने घोषणा की कि, हर स्वयंसेवक अधिकतम दो वाद्य सीख सकता है। वंशी यानि बाँसुरी, अनक यानि साइड ड्रम्स, शंख यानि बिगुल तथा पणव यानि बिग ड्रम में से कोई दो चुनना था। मैंने वंशी और अनक चुन लिए। और इस तरह पीतल की सामने से फूँकी जाने वाली वंशी पर मेरी शिक्षा शुरू हो गयी।
वंशी पर सा रे ग म की पहली शिक्षा तो रविंद्र जी ने दी। बैंड की पहली रचना "ध्वजारोहणम" से शुरुआत हुई। वह सीखने के बाद राग भूपाली तथा राग दुर्गा में भी रचनाएँ सीखीं।संघ के घोष में सभी रचनाएँ शास्त्रीय संगीत पर आधारित होती हैं। घोष वादकों के लिए एक छोटी सी पुस्तिका भी मिली थी जिसमें बहुत सारी रचनाएँ लिपिबद्ध लिखी गयी थीं। तभी राग शब्द से मेरा पहला परिचय हुआ। साथ ही पुस्तक में आगे सीखने के लिए राग खमाज, कलिंगड़ा तथा झिंझोटी राग भी दिए गए थे। यह मेरे सांगीतिक जीवन में पहला मोड़ था।
एक दिन रविंद्र जी बड़े अच्छे मिज़ाज में थे। उन्होंने हम सबके सामने एक प्रसिद्ध फ़िल्मी गीत "इक प्यार का नग़मा है" वंशी पर बजाना शुरू किया। मैं तो सोच भी नहीं सकता था की घोष की रचनाओं के अतिरिक्त वंशी पर यह भी बज सकता है! मेरे बहुत ज़िद करने पर, उन्होंने मुझे उस गीत की दो लाइनें सीखा दीं। बस, फिर क्या था, मैं तो अपने दोस्तों और परिवार वालों के बीच हीरो बन गया। वे मुझसे बार बार वही दो लाइनें सुन ने की फरमाइश करते थे। मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना न था। बाँसुरी मुझे अति प्रिय लगने लगी।
उन दिनों रेडिओ एक मात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। मेरे पिताजी और माँ, दोनों फ़िल्मी गानों के शौक़ीन थे। उनकी कृपा से सुबह से ही घर में रेडियो बजना शुरू हो जाता था। ज़्यादातर रेडियो सीलोन और विविध भारती बजते रहते थे। एक दिन विविध भारती पर मैंने सुबह साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाला कार्यक्रम "संगीत सरिता" सुना। कार्यक्रम प्रतिदिन सिर्फ १५ मिनट्स का होता था। इस में पहले किसी राग पर आधारित एक फ़िल्मी गाना बजता था। फिर उस राग का आरोह अवरोह तथा संक्षिप्त परिचय बताया जाता था तथा अंत में किसी वरिष्ठ शास्त्रीय संगीतज्ञ का उस राग में गायन या वादन होता था। घोष में सीखे हुए शब्द राग और फ़िल्मी गीतों का अद्भुत संगम था इस कार्यक्रम में मेरे लिए। फ़िल्मी गानों के मूल राग को सुनना और फिर उस से गीत का मिलान करना मेरे लिए रोज़ का शगल बन गया था। कार्यक्रम "संगीत सरिता" में सुने हुए रागों के आरोह अवरोह के स्वरों की मदद लेकर मैं उस राग पर आधारित फ़िल्मी गाने वंशी पर निकालने की कोशिश करने लगा। कभी कभी जब मैं सफल हो जाता था तथा मेरी वंशी सुन कर मेरे दोस्त या मेरी माँ गाना पहचान लेते थे, तो मुझे इतनी ख़ुशी होती थी की मैं बता नहीं सकता। एक दिन बाजार से बाँस की एक आड़ी बाँसुरी ख़रीद लाया तथा एक दो दिनों के प्रयास से उसे बजाने भी लगा। अब तो मन ही मन खुद को कृष्ण कन्हैया से कम नहीं मानता था खुद को मैं।
फ़िल्मी गाने वंशी पर निकालने की कोशिश और रागों से उनका मिलान करना चलता रहा। इसी बीच एक दिन पिताजी ने मुझे एक कार्यक्रम के पास दिए, जो बोकारो के कलाकेंद्र में आयोजित होने वाला था। मैं उस कार्यक्रम में बैठा तब मुझे पता नहीं था की यह शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम है। पर उस कार्यक्रम में पहली बार मैंने रागों को विशद रूप में सुना। उसमें गायन और वादन दोनों की बहुत सुंदर प्रस्तुतियाँ हुईं। उस कार्यक्रम ने भी मेरे मन पर गहरा असर डाला। मैं शास्त्रीय संगीत और अधिक ध्यान से सुनने लगा।
१९८२ के मार्च माह में दसवीं की बोर्ड परीक्षा देकर मैं बिल्कुल निठल्ला हो गया क्योंकि रिज़ल्ट निकलने में तीन महीने लगने थे तथा पढ़ाई से तब तक नाता नहीं रखना था । पिताजी की प्रेरणा और दोस्तों की देखा देखी मैंने कुछ सीखने का निश्चय किया। उस समय के फैशन के मुताबिक टाइपिंग और शार्ट हैंड के एक शिक्षण संस्थान में दाखिला ले लिया। उसी दौरान मेरी नज़र सड़क के किनारे लगे एक बड़े से साइन बोर्ड पर पड़ी, जिसमें लिखा था - "बोकारो संगीत महाविद्यालय (यहाँ तबला, बांसुरी, हारमोनियम, सितार सिखाया जाता है)" बाँसुरी शब्द पर मेरी नज़र अटक गई। मैंने वहां जाकर पूछा की क्या यहाँ बाँसुरी सिखाई जाती है? जवाब हाँ में मिला। पिताजी को समझा बुझा कर अप्रैल माह में मैंने बाँसुरी सीखने के लिए वहाँ दाख़िला ले लिया। और इस प्रकार वहाँ मेरे पहले गुरुदेव स्वर्गीय आचार्य जगदीश जी से मैंने विधिवत बाँसुरी वादन सीखना प्रारम्भ कर दिया।
मुझे आज भी ऐसा लगता है कि मैंने बाँसुरी को नहीं, बाँसुरी ने मुझे चुन लिया है। प्रकृति ने मेरे लिए ऐसे अवसर पैदा किये की मेरे पास बाँसुरी सीखने के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा था। आज मैं इन सारे अवसरों के लिए स्वयं को ईश्वर का ऋणी मानता हूँ।
कहानी की शुरुआत होती है मेरे बचपन के गाँव नोआमुंडी से। तीसरी तक की शिक्षा मेरे घर के बिलकुल पास स्थित प्राइमरी विद्यालय से हुई। उस के बाद की पढ़ाई बहुत दूर के मिड्ल स्कूल में शुरू हुई। मैं तब कक्षा चौथी का विद्यार्थी था। मिड्ल स्कूल की तो हर बात निराली लगती थी। हम अचानक ख़ुद को बड़ा और ज़िम्मेदार मह्सूस करने लगे थे।
इतनी सारी नई बातों में एक दिन यह भी जुड़ गया की गणतन्त्र दिवस की परेड के लिए हम सभी बच्चों को मार्च पास्ट की ट्रेनिंग मिलने लगी। ट्रेनिंग का दौर बड़ा थकाने वाला होता था। कड़कड़ाती सर्दी में सुबह सुबह बड़े से मैदान के कई चक्कर लगाने पड़ते थे। ऊपर से गलत कदम मिलाने पर कस कर डाँट भी पड़ती थी। परेड के दौरान किसी को भी कक्षा में रहने की अनुमति नहीं थी। कोई बहाना काम नहीं करता था।
एक दो दिनों के बाद हम दोस्तों ने देखा की हमारे क्लास की एक लड़की कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद मार्च पास्ट के समय मैदान में नहीं आती थी। जब हम लोगों ने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि वह तो बैंड की प्रैक्टिस में जाती है। हमारे लिए यह एक बिलकुल नई बात थी। मैंने उस से पूछा की यह बैंड क्या होता है, तो उस ने बड़े जलाने वाले अंदाज़ में बताया की हम तो बैंड में संगीत के वाद्य बजाते हैं। उसमें बाँसुरी, ड्रम्स, बिगुल इत्यादि हैं। ऊपर से उसने यह भी बताया की बैंड मास्टर सर तो बड़े प्यार से सिखाते हैं और मज़ाक भी करते हैं। गणतंत्र दिवस नज़दीक आने पर बाद में बैंड वालों के साथ जब परेड की प्रैक्टिस होती थी, तो उन लोगों का बड़ा ख़ास ध्यान रखा जाता था। यह देख कर हम लोगों ने भी बैंड में जाने की भरपूर कोशिश की, पर बैंड में कोई रिक्ति नहीं होने की बात कह कर हमें वापस कर दिया जाता था। गणतंत्र दिवस समारोह के कई दिनों बाद भी हमने देखा कि बैंड के बच्चे कई पड़ोस के शहरों में प्रदर्शन के लिए ले जाये जाते थे, वह भी बड़ी सी बस में। हमारा तो मारे जलन के बुरा हाल था। पर कर भी क्या सकते थे?
अगली कक्षा में मैं चास आ गया, जहाँ राम रूद्र हाई स्कूल में मेरा दाख़िला हो गया। वहाँ कई वर्षों तक संगीत सीखने का ऐसा कोई मौका नहीं था। क्लास नवीं में आने के बाद मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने लगा था। दसवीं कक्षा में पहुंचने के बाद एक दिन शाखा में सूचना मिली की जो लोग घोष यानि संघ के बैंड का प्रशिक्षण लेना चाहते हैं, वे अपना नाम दे दें। बचपन के घाव हरे हो गए। मैंने ठान लिया की कुछ भी हो जाये, इस बार मौका हाथ से निकलने नहीं देना है।
घोष यानि बैंड सिखाने के लिए जो शिक्षक आये, उनका नाम था श्री रविंद्र ओकील। नागपुर से पधारे थे तथा संघ के प्रचारक थे। उन्होंने घोषणा की कि, हर स्वयंसेवक अधिकतम दो वाद्य सीख सकता है। वंशी यानि बाँसुरी, अनक यानि साइड ड्रम्स, शंख यानि बिगुल तथा पणव यानि बिग ड्रम में से कोई दो चुनना था। मैंने वंशी और अनक चुन लिए। और इस तरह पीतल की सामने से फूँकी जाने वाली वंशी पर मेरी शिक्षा शुरू हो गयी।
वंशी पर सा रे ग म की पहली शिक्षा तो रविंद्र जी ने दी। बैंड की पहली रचना "ध्वजारोहणम" से शुरुआत हुई। वह सीखने के बाद राग भूपाली तथा राग दुर्गा में भी रचनाएँ सीखीं।संघ के घोष में सभी रचनाएँ शास्त्रीय संगीत पर आधारित होती हैं। घोष वादकों के लिए एक छोटी सी पुस्तिका भी मिली थी जिसमें बहुत सारी रचनाएँ लिपिबद्ध लिखी गयी थीं। तभी राग शब्द से मेरा पहला परिचय हुआ। साथ ही पुस्तक में आगे सीखने के लिए राग खमाज, कलिंगड़ा तथा झिंझोटी राग भी दिए गए थे। यह मेरे सांगीतिक जीवन में पहला मोड़ था।
एक दिन रविंद्र जी बड़े अच्छे मिज़ाज में थे। उन्होंने हम सबके सामने एक प्रसिद्ध फ़िल्मी गीत "इक प्यार का नग़मा है" वंशी पर बजाना शुरू किया। मैं तो सोच भी नहीं सकता था की घोष की रचनाओं के अतिरिक्त वंशी पर यह भी बज सकता है! मेरे बहुत ज़िद करने पर, उन्होंने मुझे उस गीत की दो लाइनें सीखा दीं। बस, फिर क्या था, मैं तो अपने दोस्तों और परिवार वालों के बीच हीरो बन गया। वे मुझसे बार बार वही दो लाइनें सुन ने की फरमाइश करते थे। मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना न था। बाँसुरी मुझे अति प्रिय लगने लगी।
उन दिनों रेडिओ एक मात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। मेरे पिताजी और माँ, दोनों फ़िल्मी गानों के शौक़ीन थे। उनकी कृपा से सुबह से ही घर में रेडियो बजना शुरू हो जाता था। ज़्यादातर रेडियो सीलोन और विविध भारती बजते रहते थे। एक दिन विविध भारती पर मैंने सुबह साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाला कार्यक्रम "संगीत सरिता" सुना। कार्यक्रम प्रतिदिन सिर्फ १५ मिनट्स का होता था। इस में पहले किसी राग पर आधारित एक फ़िल्मी गाना बजता था। फिर उस राग का आरोह अवरोह तथा संक्षिप्त परिचय बताया जाता था तथा अंत में किसी वरिष्ठ शास्त्रीय संगीतज्ञ का उस राग में गायन या वादन होता था। घोष में सीखे हुए शब्द राग और फ़िल्मी गीतों का अद्भुत संगम था इस कार्यक्रम में मेरे लिए। फ़िल्मी गानों के मूल राग को सुनना और फिर उस से गीत का मिलान करना मेरे लिए रोज़ का शगल बन गया था। कार्यक्रम "संगीत सरिता" में सुने हुए रागों के आरोह अवरोह के स्वरों की मदद लेकर मैं उस राग पर आधारित फ़िल्मी गाने वंशी पर निकालने की कोशिश करने लगा। कभी कभी जब मैं सफल हो जाता था तथा मेरी वंशी सुन कर मेरे दोस्त या मेरी माँ गाना पहचान लेते थे, तो मुझे इतनी ख़ुशी होती थी की मैं बता नहीं सकता। एक दिन बाजार से बाँस की एक आड़ी बाँसुरी ख़रीद लाया तथा एक दो दिनों के प्रयास से उसे बजाने भी लगा। अब तो मन ही मन खुद को कृष्ण कन्हैया से कम नहीं मानता था खुद को मैं।
फ़िल्मी गाने वंशी पर निकालने की कोशिश और रागों से उनका मिलान करना चलता रहा। इसी बीच एक दिन पिताजी ने मुझे एक कार्यक्रम के पास दिए, जो बोकारो के कलाकेंद्र में आयोजित होने वाला था। मैं उस कार्यक्रम में बैठा तब मुझे पता नहीं था की यह शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम है। पर उस कार्यक्रम में पहली बार मैंने रागों को विशद रूप में सुना। उसमें गायन और वादन दोनों की बहुत सुंदर प्रस्तुतियाँ हुईं। उस कार्यक्रम ने भी मेरे मन पर गहरा असर डाला। मैं शास्त्रीय संगीत और अधिक ध्यान से सुनने लगा।
१९८२ के मार्च माह में दसवीं की बोर्ड परीक्षा देकर मैं बिल्कुल निठल्ला हो गया क्योंकि रिज़ल्ट निकलने में तीन महीने लगने थे तथा पढ़ाई से तब तक नाता नहीं रखना था । पिताजी की प्रेरणा और दोस्तों की देखा देखी मैंने कुछ सीखने का निश्चय किया। उस समय के फैशन के मुताबिक टाइपिंग और शार्ट हैंड के एक शिक्षण संस्थान में दाखिला ले लिया। उसी दौरान मेरी नज़र सड़क के किनारे लगे एक बड़े से साइन बोर्ड पर पड़ी, जिसमें लिखा था - "बोकारो संगीत महाविद्यालय (यहाँ तबला, बांसुरी, हारमोनियम, सितार सिखाया जाता है)" बाँसुरी शब्द पर मेरी नज़र अटक गई। मैंने वहां जाकर पूछा की क्या यहाँ बाँसुरी सिखाई जाती है? जवाब हाँ में मिला। पिताजी को समझा बुझा कर अप्रैल माह में मैंने बाँसुरी सीखने के लिए वहाँ दाख़िला ले लिया। और इस प्रकार वहाँ मेरे पहले गुरुदेव स्वर्गीय आचार्य जगदीश जी से मैंने विधिवत बाँसुरी वादन सीखना प्रारम्भ कर दिया।
मुझे आज भी ऐसा लगता है कि मैंने बाँसुरी को नहीं, बाँसुरी ने मुझे चुन लिया है। प्रकृति ने मेरे लिए ऐसे अवसर पैदा किये की मेरे पास बाँसुरी सीखने के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा था। आज मैं इन सारे अवसरों के लिए स्वयं को ईश्वर का ऋणी मानता हूँ।